
चुनाव से पहले मुफ्त सुविधाओं के वितरण पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी नाराजगी जाहिर की है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि ‘फ्रीबीज’ यानी मुफ्त योजनाओं की वजह से नागरिकों में काम करने की प्रवृत्ति कमजोर पड़ रही है। न्यायालय ने इस मुद्दे पर गहरी चिंता व्यक्त की और कहा कि यह प्रवृत्ति देश की अर्थव्यवस्था और समाजिक संरचना के लिए घातक हो सकती है।
बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में शहरी क्षेत्रों में बेघर लोगों की स्थिति से जुड़े एक मामले की सुनवाई हो रही थी। इस दौरान जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने मुफ्त सुविधाओं के दुष्प्रभावों पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। जस्टिस गवई ने कहा, “दुर्भाग्यवश, मुफ्त योजनाओं के कारण लोग मेहनत करने को तैयार नहीं हो रहे हैं। उन्हें मुफ्त राशन और धनराशि दी जा रही है, जिससे उनका कार्य के प्रति झुकाव कम हो रहा है।”
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मुफ्त योजनाओं की सामाजिक और आर्थिक चुनौतियां
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का उद्देश्य जनता को आत्मनिर्भर बनाना होना चाहिए, न कि उन्हें मुफ्त सेवाओं का आदी बनाना। अदालत ने यह भी कहा कि जब नागरिकों को बिना मेहनत किए ही जरूरी संसाधन मिल जाते हैं, तो इससे काम करने की मानसिकता प्रभावित होती है। इससे न केवल श्रम बाजार पर असर पड़ता है, बल्कि समाज में आर्थिक असंतुलन भी बढ़ता है।
अदालत ने अपने विचार रखते हुए कहा, “हम यह समझते हैं कि सरकार को जरूरतमंदों की मदद करनी चाहिए, लेकिन क्या यह बेहतर नहीं होगा कि वे भी समाज की मुख्यधारा से जुड़ें और देश के विकास में योगदान दें?”
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सरकार की योजना पर सवाल
सुनवाई के दौरान अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने अदालत को बताया कि केंद्र सरकार वर्तमान में ‘शहरी गरीबी उन्मूलन मिशन’ को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में है। इस मिशन का उद्देश्य शहरी क्षेत्रों में बेघरों को स्थायी आवास उपलब्ध कराना और गरीबी उन्मूलन के लिए प्रभावी कदम उठाना है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस पर केंद्र सरकार से स्पष्टीकरण मांगा कि यह योजना कितने समय में लागू होगी और इसका कार्यान्वयन किस प्रकार किया जाएगा। अदालत ने कहा कि योजनाओं को मुफ्त सेवाओं के रूप में प्रस्तुत करने के बजाय उन्हें रोजगार और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए तैयार किया जाना चाहिए।