
अफगानिस्तान में तालिबान शासन के खिलाफ लंबे समय तक सख्त रुख अपनाने के बाद अब अमेरिका के रुख में एक बड़ा बदलाव देखा जा रहा है। हाल ही में तालिबान प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने कंधार में एक बैठक के दौरान कहा कि अमेरिका ने तालिबान के साथ संबंध बहाल कर लिए हैं। इस बयान की पुष्टि उस वक्त और मजबूत हुई जब अमेरिका के रक्षा मंत्रालय ने हक्कानी नेटवर्क के प्रमुख और तालिबान सरकार के आंतरिक मंत्री पर से 85 करोड़ रुपये का इनाम हटा लिया।
इस निर्णय से वैश्विक राजनीति में एक नई बहस शुरू हो गई है। सवाल उठ रहे हैं कि क्या अमेरिका वाकई तालिबान के साथ मिनरल्स डील करने की तैयारी कर रहा है या फिर यह रणनीति अमेरिकी बंधकों की रिहाई से जुड़ी हुई है? अमेरिका की इस नरमी को लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कड़ी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं।
अमेरिकी डेलिगेशन की काबुल यात्रा और इनाम वापसी की टाइमिंग
तालिबान ने इस इनाम हटाने की कार्रवाई को अपनी “सफल कूटनीतिक नीति” का नतीजा बताया है। यह फैसला उस अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल की काबुल यात्रा के बाद आया, जिसने अफगानिस्तान में तालिबान नेताओं से बातचीत की थी। हक्कानी नेटवर्क, जिसे कभी अमेरिका ने दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकी संगठनों में गिना था, अब उसके प्रमुख के खिलाफ इनाम हटा लेना एक कूटनीतिक यू-टर्न की तरह देखा जा रहा है।
मिनरल्स डील: खनिजों की दौलत पर निगाहें?
2017 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान में मौजूद खनिज संसाधनों को लेकर एक बड़ी डील की थी, जिसकी अनुमानित कीमत 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी। हालांकि, तालिबान के 2021 में सत्ता में आने के बाद इस डील को रद्द कर दिया गया था। अब जब अमेरिका फिर से तालिबान के करीब आता दिख रहा है, तो यह अंदेशा गहराता जा रहा है कि क्या यह सब फिर से उस Minerals Deal को जीवित करने की कोशिश है?
अफगानिस्तान में दुर्लभ खनिजों की भरमार है, जिसमें लिथियम, कोबाल्ट, तांबा और अन्य जरूरी रिन्यूएबल एनर्जी (Renewable Energy) मटेरियल्स शामिल हैं। दुनिया भर में Electric Vehicles और ग्रीन एनर्जी पर जोर के चलते इन खनिजों की मांग तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में अमेरिका का यह कदम बहुत हद तक कारोबारी हितों से प्रेरित भी हो सकता है।
मानवाधिकारों पर खामोशी: नैतिकता बनाम राष्ट्रीय हित?
तालिबान सरकार के मानवाधिकार रिकॉर्ड को लेकर अमेरिका ने पहले हमेशा सख्त रुख अपनाया था। खासकर महिलाओं की शिक्षा, काम और सामाजिक स्वतंत्रता पर तालिबान की पाबंदियों को लेकर अमेरिका और पश्चिमी देशों ने तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मान्यता से दूर रखा था। लेकिन अब ऐसा लगता है कि अमेरिका इन मुद्दों को दरकिनार करते हुए Geopolitical Strategy को प्राथमिकता दे रहा है।
बंधकों की रिहाई: डील का दूसरा पहलू?
तालिबान के पास आज भी कई अमेरिकी कैदी मौजूद हैं, जिनमें कुछ इंटेलिजेंस अफसर और नागरिक पत्रकार शामिल हैं। इसके अलावा, तालिबान के कब्जे में अमेरिका के अरबों डॉलर के हथियार भी हैं, जिनकी वापसी अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि ट्रंप और उनकी टीम इन कैदियों की रिहाई के लिए तालिबान से ‘सॉफ्ट डिप्लोमेसी’ अपना रहे हैं।
यदि ट्रंप तालिबान के साथ कोई गुप्त समझौता कर इन बंधकों को छुड़वा लेते हैं, तो यह अमेरिका में उनकी छवि को एक मजबूत नेता के रूप में उभार सकता है, खासकर 2024 के चुनावों को देखते हुए।
तालिबान का दावा बनाम अमेरिकी चुप्पी
अब तक अमेरिका की ओर से तालिबान के इन दावों पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है। हालांकि, तालिबान ने इसे एक बड़ी कूटनीतिक जीत बताया है और अमेरिका की नरमी को अपने प्रभाव का परिणाम घोषित किया है। इससे यह तो साफ है कि दोनों देशों के बीच पर्दे के पीछे बातचीत का दौर जारी है, लेकिन इस बातचीत की असली दिशा और मंशा अभी तक स्पष्ट नहीं है।
आगे क्या?
तालिबान और अमेरिका के बीच संबंधों की यह नई शुरुआत कई सवाल खड़े करती है। क्या यह महज एक टैक्टिकल मूव है या अमेरिका की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा? क्या अमेरिका फिर से तालिबान को मुख्यधारा में लाकर अपने व्यावसायिक और रणनीतिक हित साधने में जुटा है? और सबसे बड़ा सवाल—क्या यह सब सरेंडर है या एक गहरी स्ट्रेटजी?