
सुप्रीम कोर्ट ने रोहिंग्या मुसलमानों की वापसी को लेकर एक अहम टिप्पणी की है। शुक्रवार 9 मई 2025 को वरिष्ठ अधिवक्ता कोलिन गोंसाल्विस और वकील प्रशांत भूषण द्वारा दायर याचिकाओं पर विचार करते हुए पीठ ने स्पष्ट किया कि इस मामले में विस्तृत सुनवाई आगामी 31 जुलाई को की जाएगी। इस टिप्पणी ने देश में अवैध अप्रवासियों विशेष रूप से म्यांमार से आए रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर चल रहे विवाद को एक बार फिर से सुर्खियों में ला दिया है।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने खींचा ध्यान
यह मामला राष्ट्रीय सुरक्षा, नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों के बीच संतुलन साधने की जटिलता को दर्शाता है। सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी ने संकेत दे दिया है कि अब न्यायपालिका भी केंद्र सरकार की उस नीति की ओर झुकाव दिखा रही है, जिसमें कहा गया था कि भारत में केवल भारतीय नागरिकों को ही रहने का अधिकार है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मामला संवेदनशील है और इसके सामाजिक, धार्मिक और सुरक्षा से जुड़े पहलुओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
याचिकाकर्ताओं की दलीलें
वरिष्ठ अधिवक्ता कोलिन गोंसाल्विस और वकील प्रशांत भूषण की ओर से दायर याचिकाओं में रोहिंग्या मुसलमानों की जबरन वापसी को अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों और भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन बताया गया है। उनका तर्क है कि म्यांमार में रोहिंग्याओं पर हो रहे अत्याचारों और नरसंहार जैसे हालातों के चलते उन्हें भारत से जबरन निकाला जाना अमानवीय कृत्य होगा।
केंद्र सरकार का रुख
वहीं केंद्र सरकार का कहना है कि रोहिंग्या मुसलमानों की उपस्थिति राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। सरकार के अनुसार, इन अप्रवासियों में से कई के संबंध आतंकवादी संगठनों से हैं, और इनकी गतिविधियां देश के भीतर कानून व्यवस्था को प्रभावित कर सकती हैं। इसलिए इन्हें भारत में रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया है कि वह इस मामले में न्यायिक हस्तक्षेप से बचते हुए इसे सरकार की नीति का विषय माने।
अंतरराष्ट्रीय कानून और भारत का रुख
हालांकि भारत ने 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन और 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, लेकिन भारत अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप ही कई बार शरणार्थियों को सहारा देता रहा है। लेकिन रोहिंग्या के मामले में भारत ने कड़ा रुख अपनाया है। सरकार का मानना है कि “National Interest” किसी भी अंतरराष्ट्रीय बाध्यता से ऊपर है।
पिछला घटनाक्रम
इससे पहले भी रोहिंग्या मुद्दे पर कोर्ट ने कुछ बार केंद्र सरकार से स्थिति स्पष्ट करने को कहा था। लेकिन इस बार अदालत की टिप्पणी और सुनवाई की अगली तिथि तय होना यह दिखाता है कि न्यायपालिका अब इस मामले में निर्णायक कदम की दिशा में बढ़ रही है। कोर्ट ने कहा कि याचिका में उठाए गए मुद्दे महत्वपूर्ण हैं और उन्हें जल्दबाजी में निपटाया नहीं जा सकता।
राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रिया
इस मामले ने राजनीतिक गलियारों में भी हलचल मचा दी है। विपक्षी दलों का कहना है कि सरकार मानवीय आधार पर फैसला नहीं ले रही जबकि सत्तारूढ़ दल का कहना है कि यह राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा है, और इसमें कोई ढील नहीं दी जा सकती। सोशल मीडिया पर भी इस विषय को लेकर तीखी बहस जारी है।
क्या हो सकती है आगे की रणनीति?
31 जुलाई को जब इस मामले की विस्तृत सुनवाई होगी, तब यह तय हो सकेगा कि सुप्रीम कोर्ट रोहिंग्या मुसलमानों के मुद्दे पर किस तरह का दृष्टिकोण अपनाता है। अगर कोर्ट सरकार के पक्ष में जाता है, तो यह एक मिसाल बन सकता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर शरणार्थी नीतियों में सख्ती की जा सकती है। वहीं, अगर कोर्ट याचिकाकर्ताओं के पक्ष में जाता है, तो यह भारत की मानवीय छवि को वैश्विक मंच पर मजबूत करेगा।