कल्पना कीजिए कि एक होनहार छात्र प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में पूरी मेहनत से जुटा हो, लेकिन उसके हाथ की मांसपेशियां सही से काम न करें। उसका दिमाग तेज है, ज्ञान गहरा है, लेकिन लिखने में असमर्थता उसकी सफलता की राह में बाधा बन रही है। क्या सिर्फ इस वजह से उसे परीक्षा देने से रोका जाना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट ने इस अहम सवाल पर ऐतिहासिक निर्णय सुनाया है, जिसमें कहा गया कि हर दिव्यांग परीक्षार्थी को स्क्राइब (लिखने में सहायक) और अतिरिक्त समय जैसी सुविधाएं दी जानी चाहिए, चाहे उसकी दिव्यांगता की गंभीरता कुछ भी हो।
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मामले की पूर्ण जानकारी
यह मामला तब उठा जब एक व्यक्ति, जो ‘फोकल हैंड डिस्टोनिया’ (Focal Hand Dystonia) नामक बीमारी से पीड़ित था, को परीक्षा में स्क्राइब और अतिरिक्त समय देने से इनकार कर दिया गया। यह बीमारी हाथों की मांसपेशियों को प्रभावित करती है, जिससे व्यक्ति के लिए लिखना कठिन हो जाता है। इस निर्णय के कारण उसे मानसिक और शारीरिक रूप से भारी चुनौती का सामना करना पड़ा।
याचिकाकर्ता ने अपनी अपील में कहा कि सरकार द्वारा 10 अगस्त 2022 को जारी किए गए एक ज्ञापन में कुछ दिव्यांगों को विशेष सुविधाएं देने का प्रावधान था, लेकिन यह सभी दिव्यांग व्यक्तियों पर लागू नहीं हो रहा था। सरकार ने केवल उन उम्मीदवारों को यह सुविधाएं प्रदान करने का नियम बनाया था, जिनकी दिव्यांगता 40% या उससे अधिक थी। याचिकाकर्ता ने इस प्रावधान को भेदभावपूर्ण बताते हुए सुप्रीम कोर्ट से न्याय की मांग की।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की खंडपीठ ने इस याचिका पर विचार करते हुए सरकार को निर्देश दिया कि वह 2022 के ज्ञापन में संशोधन करे और यह सुनिश्चित करे कि परीक्षा में बैठने वाले सभी दिव्यांग उम्मीदवारों को स्क्राइब और अतिरिक्त समय जैसी सुविधाएं समान रूप से प्रदान की जाएं।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “दिव्यांग व्यक्तियों को परीक्षा में उचित सुविधाएं न देना उनके अधिकारों का उल्लंघन है। ‘उचित अवसर’ (Reasonable Accommodation) के सिद्धांत के अनुसार, हर दिव्यांग व्यक्ति को समान अवसर मिलना चाहिए। स्क्राइब या अतिरिक्त समय जैसी सुविधाएं न देना संविधान में निहित समानता के अधिकार के भी खिलाफ है।”
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‘बेंचमार्क दिव्यांगता’ की परिभाषा पर पुनर्विचार
सरकार अब तक दिव्यांगता को दो श्रेणियों में बांटती रही है:
- बेंचमार्क दिव्यांगता: वे व्यक्ति जिनकी दिव्यांगता 40% या उससे अधिक हो।
- सामान्य दिव्यांगता: वे व्यक्ति जिनकी दिव्यांगता 40% से कम हो।
अब तक केवल ‘बेंचमार्क दिव्यांगता’ वाले व्यक्तियों को विशेष सुविधाएं मिलती थीं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस व्यवस्था को असमान मानते हुए कहा कि दिव्यांगता की प्रतिशतता चाहे कुछ भी हो, हर दिव्यांग व्यक्ति को इन सुविधाओं का हकदार होना चाहिए।
परीक्षा आयोजित करने वाली संस्थाओं के लिए निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि कई परीक्षाओं में दिव्यांग उम्मीदवारों के लिए शिकायत निवारण प्रणाली (Grievance Redressal Mechanism) का अभाव था, जिससे उन्हें कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि परीक्षा आयोजित करने वाली संस्थाओं को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी दिव्यांग उम्मीदवारों को उचित सुविधाएं मिले और कोई भी भेदभाव न हो।
कोर्ट ने यह भी कहा, “कई बार परीक्षा संचालन करने वाली संस्थाओं ने दिव्यांग उम्मीदवारों को उनके अधिकारों से वंचित रखा है, क्योंकि इस संबंध में स्पष्ट नीतियां नहीं थीं। अब इस असमानता को दूर किया जाना चाहिए।”
निजी कंपनियों पर भी लागू होगा यह फैसला
कुछ निजी कंपनियां और भर्ती एजेंसियां यह दावा करती रही हैं कि वे ‘दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016’ (RPwD Act, 2016) के दायरे में नहीं आतीं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि मौलिक अधिकार केवल सरकारी संस्थानों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि निजी संस्थानों को भी इस कानून का पालन करना होगा और दिव्यांग उम्मीदवारों को समान अवसर देने होंगे।
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आगे की राह
- अब हर दिव्यांग व्यक्ति को परीक्षा में स्क्राइब और अतिरिक्त समय जैसी सुविधाएं मिलेंगी।
- 40% से कम दिव्यांगता वाले व्यक्ति भी इन लाभों के हकदार होंगे।
- परीक्षा आयोजित करने वाली संस्थाओं को स्पष्ट दिशानिर्देशों का पालन करना होगा।
- सरकार को 2022 के ज्ञापन में संशोधन करना होगा ताकि कोई भी दिव्यांग व्यक्ति भेदभाव का शिकार न हो।
- निजी कंपनियों और भर्ती संस्थानों को भी दिव्यांग व्यक्तियों को समान अवसर देने होंगे।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारत में दिव्यांग व्यक्तियों के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जा रहा है। इससे प्रतियोगी परीक्षाओं में दिव्यांग उम्मीदवारों को समान अवसर मिलेगा और सरकारी एवं निजी संस्थानों को उनके अधिकारों का सम्मान करने के लिए बाध्य किया जाएगा।