
सौर ऊर्जा का उपयोग पहले से ही धरती पर प्रमुख ऊर्जा स्रोत बन चुका है, लेकिन अब जापान एक कदम और आगे बढ़ते हुए अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा बनाने और उसे वायरलेस तरीके से धरती पर भेजने का प्रयास कर रहा है। यह परियोजना पूरी दुनिया के लिए एक क्रांतिकारी कदम साबित हो सकती है, क्योंकि इसमें तारों का उपयोग नहीं होगा, बल्कि माइक्रोवेव के रूप में ऊर्जा को पृथ्वी पर ट्रांसमिट किया जाएगा। इस तकनीक से अगर काम हुआ, तो यह पूरी दुनिया में ऊर्जा उत्पादन और वितरण के तरीके को बदल सकता है।
जापान की नई पहल: अंतरिक्ष से बिजली का ट्रांसमिशन
जापान का यह प्रयास पूरी दुनिया के लिए एक नई दिशा दिखाने वाला है। रिपोर्ट्स के अनुसार, जापान ने सूर्य की ऊर्जा को अंतरिक्ष में संकलित करने और उसे माइक्रोवेव के रूप में धरती पर भेजने का एक तरीका खोज लिया है। यह ऊर्जा बिना किसी तार के सीधे पृथ्वी पर पहुंचाई जाएगी, और इसके लिए एक विशेष उपग्रह का उपयोग किया जाएगा। यह उपग्रह अंतरिक्ष में सूर्य के प्रकाश को सौर पैनलों के माध्यम से कैप्चर करेगा और उसे बैटरियों में संग्रहित करेगा, जिसे बाद में माइक्रोवेव के रूप में परिवर्तित किया जाएगा और पृथ्वी पर भेजा जाएगा।
किस प्रकार काम करेगा यह उपग्रह?
इस परियोजना के तहत, जापान ने 22 वर्ग फुट (2 वर्ग मीटर) के सौर पैनल और 400 पाउंड वजन का एक छोटा उपग्रह तैयार किया है। यह उपग्रह पृथ्वी की निचली कक्षा में 400 किलोमीटर की ऊंचाई से लगभग 1 किलोवाट बिजली को ट्रांसमिट करेगा। कोइची इजिची, जो जापान स्पेस सिस्टम्स (JSS) के सलाहकार भी हैं, ने इस परियोजना की तकनीकी जानकारी दी। इस उपग्रह का नाम “OHISAMA” रखा गया है, जो जापानी भाषा में “सूर्य” को दर्शाता है। हालांकि, इस उपग्रह की लॉन्चिंग की तारीख अभी तक घोषित नहीं की गई है, लेकिन यह अप्रैल के बाद कभी भी हो सकती है।
माइक्रोवेव और एंटीना: ऊर्जा का ट्रांसमिशन
सामान्य सौर पैनलों में सूर्य की ऊर्जा को सीधे बिजली में बदलकर तारों के जरिए भेजा जाता है, लेकिन अंतरिक्ष से ऊर्जा भेजने के लिए यह तरीका संभव नहीं है। इसलिए, जापान के इस मिशन में ऊर्जा को माइक्रोवेव में बदलकर भेजा जाएगा। यह माइक्रोवेव ऊर्जा को विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए एंटीना द्वारा ग्रहण किया जाएगा। यह उपग्रह 28,000 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से पृथ्वी की ओर बढ़ेगा, और ऊर्जा को वायरलेस तरीके से भेजने के लिए बड़ी और लंबी एंटीना की आवश्यकता होगी। हालांकि, प्रारंभ में इस परियोजना के परीक्षण के लिए छोटे एंटीना का इस्तेमाल किया जाएगा।
विशेष रिसीवर और ऊर्जा का उपयोग
अंतरिक्ष से भेजी गई ऊर्जा को पकड़ने के लिए विशेष रिसीवर्स तैयार किए गए हैं। यह रिसीवर्स 600 वर्ग मीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं, और इनकी संख्या 13 होगी। इन रिसीवर्स को इस प्रकार डिज़ाइन किया गया है कि वे माइक्रोवेव ऊर्जा को प्रभावी रूप से ग्रहण कर सकें। इस ऊर्जा को प्राप्त करने के बाद, इसे धरती पर इस्तेमाल किया जा सकेगा। रिपोर्ट्स के मुताबिक, भेजी गई ऊर्जा एक घंटे तक डिशवॉशर को चलाने के लिए पर्याप्त होगी। हालांकि, यदि यह तकनीक सफल रहती है, तो इसका उपयोग वैश्विक स्तर पर सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिए किया जा सकता है, जो एक स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत के रूप में कार्य करेगा।
पहले भी हुई है ऐसी कोशिशें
यह पहली बार नहीं है जब अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा का उपयोग किया गया हो। मई 2020 में, यूएस नेवल रिसर्च लेबोरेटरी (NRL) ने X-37B ऑर्बिटल टेस्ट व्हीकल को लॉन्च किया था, जिसने अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा को माइक्रोवेव ऊर्जा में परिवर्तित किया और उसे वायरलेस तरीके से पृथ्वी पर भेजने में सफलता हासिल की। हालांकि, नासा का मानना है कि इससे जुड़ी लागत बहुत अधिक होगी, जिससे इस विधि को व्यावसायिक रूप से लागू करना मुश्किल हो सकता है। अनुमान के अनुसार, इस तकनीक की लागत 61 सेंट प्रति किलोवाट-घंटा होगी, जबकि पृथ्वी पर सौर और पवन ऊर्जा की लागत केवल 5 सेंट प्रति किलोवाट-घंटा है।
क्या भविष्य में होगी यह तकनीक व्यावसायिक रूप से सफल?
हालांकि इस तकनीक के सफल होने की संभावनाएं दिख रही हैं, लेकिन इसे व्यावसायिक रूप से लागू करने के लिए कई चुनौतियां सामने आ सकती हैं। इन चुनौतियों में सबसे बड़ी चुनौती लागत से संबंधित है, क्योंकि अंतरिक्ष से ऊर्जा भेजने के लिए जिस प्रकार के उपग्रहों, एंटीना और रिसीवर्स की आवश्यकता होगी, वह काफी महंगे हो सकते हैं। इसके अलावा, इसे अंतरिक्ष में स्थापित करने और संचालन करने के लिए भी उच्च तकनीकी विशेषज्ञता की आवश्यकता होगी। फिर भी, यदि यह तकनीक सफल होती है, तो यह ऊर्जा उत्पादन के एक नए युग की शुरुआत हो सकती है, जो वैश्विक ऊर्जा संकट को हल करने में मदद कर सकती है।